काशी के महाश्मशान पर सजी नृत्य-संगीत की महफिल
वाराणसी। विश्व की प्राचीनतम नगरी काशी आज भी अपने धरोहरों को सहजने में जुटी है। यूं तो कई धर्मों के लोगों में मौत पर जश्न मनाने की परम्पराएं देखने-सुनने को मिलती हैं लेकिन काशी पहले भी बेजोड़ थी और आज भी है।
काशी के महाश्मशान पर सजी नृत्य-संगीत की महफिल
वाराणसी। विश्व की प्राचीनतम नगरी काशी आज भी अपने धरोहरों को सहजने में जुटी है। यूं तो कई धर्मों के लोगों में मौत पर जश्न मनाने की परम्पराएं देखने-सुनने को मिलती हैं लेकिन काशी पहले भी बेजोड़ थी और आज भी है। मौत पर जश्न और महाश्मशान में चिताओं की धधकती आग के बीच नृत्य, संगीत की महफिल सजना कोई साधारण बात नही है। बनारस, काशी के महाश्मशान
मणिकर्णिकाघाट पर आज से नही बल्कि 355 सालों से चली आ रही परम्परा के तहत आठ मार्च शुक्रवार की रात नगरबधुओं के नृत्य व संगीत की महफिल सजी। हजारों की संख्या में दर्शक नृत्य, संगीत की धुनों में अलमस्त थे और आसपास जगह-जगह लपटों से धिरी चिताएं धधक रही थीं। जो दुनिया छोड़कर परलोक चले गए उनका अंतिम संस्कार हो रहा था। किसी को जन्म देनेवाली मां चल बसी,
किसी का जवान बेटा-बेटी नही रही, पिता नही रहे, किसी के सुहाग का सिंदूर मिट गया तो किसी का जीवनसाथी असमय साथ छोड़ चला गया। उनकी चिताएं सज रही हैं या जलाई जा रही हैं। सोचिए यहां क्या माहौल होगा? वही दूसरी ओर महाश्मशान पर चिताओं के बीच महफिल सजी है। भक्ति और फिल्मी धुनों पर नगर वधुएं नृत्य पेश कर रही हैं और लोग आनंदित हो रहे हैं। एक तरफ तो
का नजरना तो दूसरी ओर मस्तमौला काशी की मस्ती और अल्हड़पन। एक ही घाट पर जीवन और मौत, खुशी और गम का यदि कही मिलन होता है तो वह है मणिकर्णिका घाट। और यहां से कुछ ही दूरी पर हैं काशी के नाथ विश्वनाथ का धाम। काशी की अनूठी परम्पराओं की देन है कि बाबा भोलेनाथ के लिए होली गीत ’खेलें मशाने में होली दिगम्बर’ काशी को दुनिया में अलग पहचान देती है।
दुनिया भर से लोग काशी में यही तो देखने आते हैं। काशी के इस महाश्मशान की चिताएं कभी ठंडी नही होती हैं। एक ओर चिताएं
जलती हैं तो दूसरी ओर चिताएं सजती रहती हैं। आईए चैत्र नवरात्र की सप्तमी शुक्रवार यानि आठ अप्रैल की रात तीन दिवसीय नृत्यांजलि, संगीतांजलि की महफिल की अंतिम निशा में आपको ले चलते हैं। मंच पर करीब एक दर्जन से अधिक नगरवधुएं और वादकों की टीम। आयोजक मंडल और मंच के सामने दर्शकों की भीड़ के बीच हर-हर महादेव के उद्घोष गूंज रहे हैं। कार्यक्रम के
शुरूआत की घोषणा के साथ ही घुंघरूओं की झंकार के साथ नृत्य शुरू हो जाते हैं। घुंघरू बजते और टूटते रहते हैं और मस्ती शबाब पर होती है। मोक्ष नगरी काशी के बारे में जो लोग ’मौत भी उत्सव है’ पढ़ते, सुनते आए हैं वह यहां चरितार्थ होता दिखता है। खास बात
यह कि बाबा महाश्मशान नाथ को साक्षी मानकर यह नगर वधुएं नृत्य करती हैं। यह नृत्य उनको समर्पित होता है। मान्यता यह है कि नगरवधुएं इसलिए यहां नृत्य, संगीत पेश करती हैं कि अगले जन्म में उन्हें फिर नगरवधुओं का नारकीय जीवन न जीना पड़े। उनकी
यही कामना होती है। पुरातन काल में इन्हें गणिकाएं कहा जाता था। इस अनूठे उत्सव को देखने के लिए विदेशी सैलानी भी आए थे। सन्ध्या पूजन के बाद राग-विराग का मेला, घुंघरूओं की झंकार से शुरू हुआ उत्सव देर रात तक आबाद रहा। इस आयोजन के दौरान शहर के प्रशासिनक अधिकारी से लगायत गणमान्य लोग इसके साक्षी बने।
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