स्वाभिमान के लिए सड़कों पर उतरा है पत्रकार-आत्ममंथन जरूरी
वाराणसी। पत्रकारिता आज फिर एक बार अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए सड़कों पर है। यह लड़ाई स्वाभिमान और सम्मान की भी है। बलिया के पत्रकारों ने संविधान और लोकतांत्रिक मार्यादाओं के अनुरूप विरोध प्रदर्शन करते हुए अपनी आवाज बुलंद किया है।
स्वाभिमान के लिए सड़कों पर उतरा है पत्रकार-आत्ममंथन जरूरी
वाराणसी। पत्रकारिता आज फिर एक बार अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए सड़कों पर है। यह लड़ाई स्वाभिमान और सम्मान की भी है। बलिया के पत्रकारों ने संविधान और लोकतांत्रिक मार्यादाओं के अनुरूप विरोध प्रदर्शन करते हुए अपनी आवाज बुलंद किया है।
जो भी हो इन ग्रामीण पत्रकारों ने देश के पत्रकारों के शोषण, उत्पीड़न को राष्ट्रीय पटल पर लाकर रख दिया है। इस आंदोलन ने देश के पत्रकारों को थोड़ा ठहरकर आत्ममंथन के लिए विवश कर दिया है। इतिहास गवाह है कि समय-समय पर पत्रकार अपने अधिकार के लिए सड़कों पर उतरते रहे हैं।
पत्रकारों को हर राजनीतिक दलों की सरकार के दौरान छोटी या बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ती है। मैं उन पत्रकारों की कत्तई बात नही कर रहा हूं जो टीआरपी और सर्कुलेशन बढ़ाने और विज्ञापन के लोभ में किसी हद तक जाने को तैयार हैं। पत्रकारिता का मान मर्दन कर रहे हैं। हमें यह समझ लेना चाहिए कि पत्रकारिता और पत्रकारिता के नाम पर दुकान चलाना अलग-अलग बातें हैं। पत्रकारिता धर्म है
और वही उसका मूल है लेकिन दुकान नफा-नुकसान देखती है। याद कीजिए इस देश में इससे पहले कई मीडिया समूहों की तूती बोलती थी। विभिन्न प्रदेशों में एकछत्र राज था उनका लेकिन आज कोई नही पूछता। आज उन्हें बताना पड़ता है कि वे कौन हैं। तब भी कोई गंभीरता से नही लेता।
देश के तीन स्तम्भ न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बाद कहा जाता है कि चौथा खम्भा पत्रकारिता है। लेकिन पिछले कुछ सालों में पत्रकारिता सबसे अधिक संकटों व सवालों के घेरे में हैं। कभी इनके खिलाफ मुकदमें दर्ज होते हैं, गिरफ्तारियां होती है, हमले होते हैं और हत्याएं तक हो जाती हैं। लेकिन यह सोचने की जरूरत है कि क्या पत्रकारिता आज सही राह पर है? पहले और अब में काफी अंतर आ चुका है। कभी सम्पादक और पत्रकार हर खबर पर पैनी नजर रखते थे। प्रबंधन का हस्तक्षेप जरूरत भर ही था। इस बात का ध्यान रखा जाता था कि खबर मानक के अनुरूप है या नही। हमारी मार्यादाएं क्या हैं और लक्ष्मण रेखा का विशेष ध्यान रखा जाता था। लेकिन हालात बदलते चले गए। व्यावसायिक पत्रकारिता ने हमें इस हालत में लाकर खड़ा कर दिया। अब खबरों का पैमाना मीडिया समूह का प्रबंधन तय करता है। वह अपने ग्राहक के हिसाब से खबरें तय कर रहा है। मेरी नजर में सम्पादक और रिपोर्टर नाम की संस्था हासिए पर आ चुकी है। उसकी प्राथमिकता में उसकी नौकरी है। इसलिए वह विवश है कि प्रबंधन जो कहे वही खबरें दे। ’बास इज आलवेज राईट’ का फार्मूला यहां भी लागू हो चुका है। वैसे भी पत्रकारिता में भ्रष्टाचार की जड़ें काफी गहरी हैं। नौकरी पेशा पत्रकारों पर प्रबंधन ने नौकरी से निकाले जाने की तलवार लटका रखी है। प्रशासन मुकदमे और गिरफ्तारी की तलवार लेकर मौके की ताक में बैठा है और शासन मौन है। तो ऐसे में क्या समझा जाय। हम गलत कार्य, पीत पत्रकारिता और पत्रकारिता की दुकान में बैठकर धंधा करनेवालों के समर्थन में न थे, न हैं और न रहेंगे। ऐसे लोगों पर शिकंजा कसा जाना चाहिए। तभी पत्रकारिता अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर सकेगी। पत्रकार का मतलब राष्ट्र और जनता का बेहतर सहयोगी, मित्र और शुभचिंतक है। समाज का सेवक है। उसे किसी सड़क, चौराहे या स्टूडियो में मवाली, गुंडों की तरह नौटंकी करने की जरूरत नही है। वास्तव में पत्रकार को तो इसकी जरूरत ही नही है। यदि वह जनता और खबरों के प्रति ईमानदार है तो जनता उसे खुद ब खुद पहचान लेती है और उसे सम्मान की नजरों से देखती है। लेकिन आज सोचने की जरूरत है कि पत्रकारिता पेशे से जुड़े लोगों ने ऐसा क्या कर दिया कि उन्हें संदेह की नजरों से देखा जाने लगा। अभी भी वक्त है कि हम अपने गिरेबां में झांकें। यदि हम अब भी सचेत नही हुए तो आगं खाई तैयार है।
पत्रकार तेरी यही कहानी...............
वाराणसी। पत्रकारिता की हालत के लिए पत्रकार भी कम दोषी नहीं। जैसे सरकारी प्रतिष्ठानों के निजीकरण के लिए सरकार से ज्यादा दोषी अफसर और ट्रेड यूनियनें हैं। कहा जाय को 1990 के दशक से बड़ी सोची समझी नीति के तहत पहले गैर पत्रकारों की छंटनी शुरू हुई। क्योंकि कम्पोजिंग, प्रूफ रीडिंग, पेज बनाने के लिए अलग-अलग विभाग और कर्मचारी थे। इन्हें गैर पत्रकार कहा जाता था। जब प्रबंधन ने इनकी छंटनी शुरू की तो पत्रकारों को लगा कि वे महफूज है और वे गैर पत्रकारों के समर्थन में क्यों बोलें। लेकिन गैर पत्रकारों का काम इन पत्रकारों के सिर पर आ गया। वेतन भी कम करते चले गए। काम के घंटे बढ़ाते चले गए। इसके बाद काम के बोझ तले दबे पत्रकारों की ऑटोमेशन के नाम पर जब छंटनी होने लगी। एक-एक करके पत्रकार भी विदा किये जाने लगे। सबसे पहले स्ट्रिंगरों की छुट्टी हो गयी। फिर अलग-अलग ब्यूरों के पत्रकारों की। आखिर में डेस्क के लोगों की, उनकी भी जो मैनेजमेंट के पिट्ठू थे। ट्रेड यूनियन के नेताओं को काम न करने की छूट दे दी गयी और उन्हें परिवार के साथ विदेश यात्रा पर भेज दिया जाता रहा। हड़ताल होती थी और नेता अंदर जाकर समझौते पर दस्तखत करके विदेश यात्रा पर निकल जाते थे। कर्मचारियों की संख्या घटाने के बाद इन सभी संस्थाओं में बिना प्रतिरोध विनिवेश और निजीकरण, ऑटोमेशन सम्पन्न हो गया। मीडिया की समाज और देश के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है। लेकिन मीडिया जिसे अभिव्यक्ति की आजादी मिली हुई है वह पूरी जिम्मेदारी से निभा पा रही है ? क्या देश में व्याप्त बेपनाह भ्रष्टाचार के लिए वह भी कहीं न कहीं जिम्मेदार नहीं है? क्या मीडिया स्वयं भी भ्रष्ट नहीं हो गया है? क्या मीडिया जनता के दुःख दर्द पर कम, अपनी कमाई, अपनी टीआरपी के लिए क्या वह पत्रकारिता के मानदंडों की धज्जियां नही उड़ा रहा ? इन सबके अलावा हम यह भी नही कह सकते कि सारा मीडिया गैर जिम्मेदार हो गया है। स्वच्छ, इमानदार पत्रकार आज भी मौजूद हैं जो देश को सही दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। जनता की भलाई के लिए अपनी जान भी जोखिम में डाल देते हैं, और कुर्बानियां भी दे रहे हैं। ऐसे जांबाज पत्रकारों को मैं सेल्यूट करता हूं। साथ ही उम्मीद करता हूं कि काजल की कोठरी में बैठकर दूसरों पर कीचड़ उछालने वालों को समझ आ जाएगी। भौकाली पत्रकारिता ज्यादा दिन नही टिकती। क्योंकि भौकाल जब तक है तभी तक। बाद में उन्हें कुत्ता भी नही पूछता। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि शासन-सत्ता में मौजूद लोग जब विपक्ष में होते हैं तो यही पत्रकार व मीडिया के लिए शहद टपकाते रहते हैं। सत्ता में आते ही यही भ्रष्ट नजर आने लगते हैं।
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