विभाजन विभीषिका दिवस पर विशेष

वाराणसी, 16  अगस्त। 14 अगस्त सन 1947 को हुए देश के बंटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। ''विभाजन की विभीषिका'', ये शब्द सुनकर ही रूह काँप जाती है। नफरत और हिंसा की वजह से लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी। सोचिए जिन्होंने विभाजन की विभीषिका को झेला होगा, उनपर क्या गुजरी होगी। ऐसे में हमने बात की पार्टीशन का दर्द झेल चुके सिंधी परिवार के सदस्य और यूपी सिंधी सभा के उपाध्यक्ष रमेश लालवानी से।  

विभाजन विभीषिका दिवस पर विशेष

''पिता से सुनी कहानी याद करके आज भी रुह कांप जाती है'' 

- उत्तर प्रदेश सिंधी सभा के उपाध्यक्ष रमेश लालवानी ने साझा किया विभाजन का दर्द 

- सन् 46 में ही आभास हो गया था कि अब पाकिस्तान में रह पाना मुश्किल होगा

- पूर्वजों का घर देखने पाकिस्तान गए तो हिन्दुओं की दुर्दशा देख दिल दु:खी हो गया


वाराणसी, 12 अगस्त। 14 अगस्त सन 1947 को हुए देश के बंटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। ''विभाजन की विभीषिका'', ये शब्द सुनकर ही रूह काँप जाती है। नफरत और हिंसा की वजह से लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी। सोचिए जिन्होंने विभाजन की विभीषिका को झेला होगा, उनपर क्या गुजरी होगी। ऐसे में हमने बात की पार्टीशन का दर्द झेल चुके सिंधी परिवार के सदस्य और यूपी सिंधी सभा के उपाध्यक्ष रमेश लालवानी से।  

सन् 46 में ही आभास हो गया था कि अब यहां रहना मुश्किल है 
वाराणसी में कई ऐसे परिवार हैं जो पाकिस्तान के सिंध प्रांत से भारत आए थे। इसी परिवार की दूसरी पीढ़ी के 72 वर्षीय सदस्य रमेश लालवानी हैं, जिनके पिता स्वर्गीय देऊमल लालवानी पाकिस्तान के सिंध प्रांत से वाराणसी आकर बसे। रमेश लालवानी ने पिता से सुनी दास्तां को याद करते हुए बताया कि सिंध में 1946 में ही आभास होने लगा था कि अब यहां हिन्दुओं का रहना मुश्किल होगा। हिन्दुओं के प्रति खराब होते हालात को देखकर 1946 में ही हमारा परिवार पाकिस्तान छोड़ कर वाराणसी में आकर बस गया। 

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